दीपावली और लक्ष्मी पूजा
महालक्ष्मी का जन्म समुद्र मन्थन के दिन ही माना जाता है समुंद्र मन्थन से उत्पति लक्ष्मी जी पैदा हुई थी इनकी सुंदरता देख कर सभी मुग्ध हो गए इन्द्र ने अपना रत्न जडित आसन दिया, नदियो ने सोने के घड़ो मे स्नान के लिएपानी लाया , ऋषियो ने उन का अभिषेक किया I अप्सराऔ ने नृत्या किया मेघ अपनेगर्जन से उनका साथ देने लगे सागर ने पीले वस्त्र ,वेजनती माला वरुण ने,बहुत सारेआभूषण दिये I इस प्रकार सुन्दर लक्ष्मी ने स्वयं कमल की माला लेकर विष्णु के गले मे डाल दी I जब कृष्ण ने योग माया से रास लीलाका आयोजन किया , तब उन के अन्ग से देवी का अवतार हुआ था I और देवी ने तब दो अवतार धराण किए एक राधा का और महालक्ष्मी का I देवराज के घर से स्वरलक्ष्मी पाताल मे नागलक्ष्मी,राजगृहो मे राजलक्ष्मी ,कुलवती स्त्रियो मे गृहलक्ष्मी श्रीचन्द्र कमल मे , शोभा सूर्यमंडल मे ,रत्न,फल, फूल,मानव,देवी, देवेतओ,पशु,पंछी हीरे,मोती, अन्न, वस्त्र, सभी मे विराजित थी I
पहली बार नारायण ने बेकुंठ मे लक्ष्मी जी की पूजा की ,ब्राह्मन नो ने दूसरी बार ,फिर शिव ने, विष्णु ने स्मुद्र मंथन मे , पाताल मे नागों ने पूजा की थी I शरद ऋतु मे दीपावली के दिन पोष्ट संक्र्आती के दिन देवताओ ने भी इस की पूजा की Iमार्कण्डेय पुराण मे महाईलक्ष्मी की उपासना के लिए महा रात्रि का बहुत बड़ा उत्सव मनाया जाता है I
ज्ञानेनैवापरे विप्राः यजन्ते तैर्मखःसदा।
ज्ञानमूलां क्रियामेषा पश्चन्तो ज्ञानचक्षुषा।।
हिन्दी में भावार्थ-कुछ गृहस्थ विद्वान अपनी क्रियाओं को अपने ज्ञान नेत्रों से देखते हैं। अपने कार्य को ज्ञान से संपन्न करना भी एक तरह से यज्ञानुष्ठान है। वह ज्ञान को महत्वपूर्ण मानते हैं इसलिये उन्हें श्रेष्ठ माना जाता है।
ब्राह्मो मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थो चानुचिन्तयेत्।
कायक्लेशांश्च तन्मूलान्वेदातत्तवार्थमेव च।।
हिन्दी में भावार्थ-ब्रह्म मुहूर्त में उठकर धर्म का अनुष्ठान करने के बाद अर्थोपार्जन का विचार करना चाहिए। इस शुभ मुहूर्त में शारीरिक क्लेशों को दूर करने के साथ ही वेदों के ज्ञान पर विचार करना भी उत्तम रहता है।
तुलायाँ तिलतैलेन सायंकाले समायते ।
आकाशदीपं यो दद्यान्मासमेकं हरिं प्रति ॥
महती श्रियमाप्नोति रूपसौभाग्यसम्पदम ॥
जो मनुष्य कार्तिक मास में सन्ध्या के समय भगवान श्री हरी के नाम से तिल के तेल का दीप जलाता है, वह अतुल लक्ष्मी, रूप सौभाग्य, और सम्पत्ति को प्राप्त करता है । नारद जी के अनुसार दीपावली के उत्सव को द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या और प्रतिपदा – इन पांच दिनों तक मानना चाहिये । इनमें भी प्रत्येक दिन अलग अलग प्रकार की पुजा का विधान है ।
क्षीरोदार्णवसम्भूते सुरासुरनमस्कृते ।
सर्वदेवमये मातर्गृहाणार्घ्य नमो नमः ॥
(समुद्र मंथन के समय क्षीरसागर से उत्पन्न देवताओं तथा दानवों द्वारा नमस्कृत, सर्वदेवस्वरूपिणी माता तुम्हे बार बार नमस्कार है।)
पूजा के बाद गौ को उड़द के बड़े खिलाकर यह प्रार्थना करनी चाहिए-
“सुरभि त्वं जगन्मातर्देवी विष्णुपदे स्थिता ।
सर्वदेवमये ग्रासं मया दत्तमिमं ग्रस ॥
ततः सर्वमये देवि सर्वदेवलङ्कृते।
मातर्ममाभिलाषितं सफलं कुरू नन्दिनी ॥“
हे जगदम्बे ! हे स्वर्गवसिनी देवी ! हे सर्वदेवमयि ! मेरे द्वारा अर्पित इस ग्रास का भक्षण करो । हे समस्त देवताओं द्वारा अलंकृत माता ! नन्दिनी ! मेरा मनोरथ पुर्ण करो।)
ज्ञानेनैवापरे विप्राः यजन्ते तैर्मखःसदा।
ज्ञानमूलां क्रियामेषा पश्चन्तो ज्ञानचक्षुषा।।
हिन्दी में भावार्थ-कुछ गृहस्थ विद्वान अपनी क्रियाओं को अपने ज्ञान नेत्रों से देखते हैं। अपने कार्य को ज्ञान से संपन्न करना भी एक तरह से यज्ञानुष्ठान है। वह ज्ञान को महत्वपूर्ण मानते हैं इसलिये उन्हें श्रेष्ठ माना जाता है।
ब्राह्मो मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थो चानुचिन्तयेत्।
कायक्लेशांश्च तन्मूलान्वेदातत्तवार्थमेव च।।
हिन्दी में भावार्थ-ब्रह्म मुहूर्त में उठकर धर्म का अनुष्ठान करने के बाद अर्थोपार्जन का विचार करना चाहिए। इस शुभ मुहूर्त में शारीरिक क्लेशों को दूर करने के साथ ही वेदों के ज्ञान पर विचार करना भी उत्तम रहता है।
तुलायाँ तिलतैलेन सायंकाले समायते ।
आकाशदीपं यो दद्यान्मासमेकं हरिं प्रति ॥
महती श्रियमाप्नोति रूपसौभाग्यसम्पदम ॥
जो मनुष्य कार्तिक मास में सन्ध्या के समय भगवान श्री हरी के नाम से तिल के तेल का दीप जलाता है, वह अतुल लक्ष्मी, रूप सौभाग्य, और सम्पत्ति को प्राप्त करता है । नारद जी के अनुसार दीपावली के उत्सव को द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या और प्रतिपदा – इन पांच दिनों तक मानना चाहिये । इनमें भी प्रत्येक दिन अलग अलग प्रकार की पुजा का विधान है ।
क्षीरोदार्णवसम्भूते सुरासुरनमस्कृते ।
सर्वदेवमये मातर्गृहाणार्घ्य नमो नमः ॥
(समुद्र मंथन के समय क्षीरसागर से उत्पन्न देवताओं तथा दानवों द्वारा नमस्कृत, सर्वदेवस्वरूपिणी माता तुम्हे बार बार नमस्कार है।)
पूजा के बाद गौ को उड़द के बड़े खिलाकर यह प्रार्थना करनी चाहिए-
“सुरभि त्वं जगन्मातर्देवी विष्णुपदे स्थिता ।
सर्वदेवमये ग्रासं मया दत्तमिमं ग्रस ॥
ततः सर्वमये देवि सर्वदेवलङ्कृते।
मातर्ममाभिलाषितं सफलं कुरू नन्दिनी ॥“
हे जगदम्बे ! हे स्वर्गवसिनी देवी ! हे सर्वदेवमयि ! मेरे द्वारा अर्पित इस ग्रास का भक्षण करो । हे समस्त देवताओं द्वारा अलंकृत माता ! नन्दिनी ! मेरा मनोरथ पुर्ण करो।). गोवर्धनः
ॐ गोवर्धनदेवायै नमः।
२. रुक्मिणीः
ॐ रुक्मिणीदेव्यै नमः ।
३. मित्राविन्दाः
ॐ मित्राविन्दादेव्यै नमः ।
४. शैब्याः
ॐ शैब्यादेव्यै नमः ।
५. जाम्बवतीः
ॐ जाम्बवतीदेव्यै नमः।
६. सत्यभामाः
ॐ सत्यभामादेव्यै नमः।
७. लक्ष्मणाः
ॐ लक्ष्मणादेव्यै नमः।
८. सुदेवाः
ॐ सुदेवादेव्यै नमः।
९. नाग्नजितीः
ॐ नाग्नजितीदेव्यै नमः ।
१०. नन्दबाबाः
ॐ नन्दबाबादेवाय नमः।
११. बलभद्रः
ॐ बलभद्राय नमः।
१२. यशोदाः
ॐ यशोदादेव्यै नमः।
१३.सुरभिः
ॐ सुरभ्यै नमः।
१४.सुनन्दाः
ॐ सुनन्दाये नमः।
१५.सुभद्राः
ॐ सुभद्रायै नमः ।
१६. कामधेनुः
ॐ कामधेन्वै नमः।
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